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अन्ना और राजनीति : फायदा या नुकसान

From My Diary
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अन्ना जी और उनके सहयोगी भला सक्रीय राजनीति में आकार ही क्या कर लेंगे ?
ज्यादा से ज्यादा दो चार सीट या शायद वो भी नहीं या हो सकता है इससे जयादा .
यहाँ मेरे लिखने का मतलब सीटों की संख्या से कतई नहीं है यहाँ प्रश्न सिन्धान्त का है , सवाल उसूलों का है , सवाल उस विश्वास का है जो अन्ना के इस कदम से टूट रहा है .
एक आम आदमी के तरह से इस आन्दोलन को चलाना क्या अन्ना जी को असंभव लगने लगा ?
इसे तो इतनी जल्दी हथियार डालना ही कहा जायेगा .
एक बात मुझे बहुत विचलित कर रही है की अन्ना जी में आम लोगो को बापू जी का जैसे एक चित्र सा दिखाई पड़ता था , लोग उन्हें पक्का गांधीवादी और उनके सच्चे अनुयाई के रूप में स्वीकार भी करते थे , और पूर्व में उन्होंने इसी हथियार से बड़े स्तर पर भी परिवर्तन लाया भी है
और आज थोड़े दिनों में ही खुद अनशन तोड़कर एक अप्रत्यासित रूप से की गई घोषणा ने तो मानो एक सन्नाटा सा पसार दिया है कम से कम मेरे जैसे लोग तो अचंभित है
अनशन छोड़कर सक्रीय राजनीति में उतर जाने से क्या भला आम जनमानस में ऐ सन्देश नहीं जायेगा की “ गाँधीवादी तरीको से क्रांति नहीं लाई जा सकती है ?
खुद अन्ना जी को अपने रस्ते पर काफी विश्वास था और आम जन भी उनसे इतनी उम्मीद तो रख ही रहे थे की यह इंसान इन राजनेताओ से अलग हटकर है और शायद यही वो शख्स है जो देश में एक नई क्रांति ला सकता है .
और इनके द्वारा गांधीवादी तरीको या स्पष्ट कहे तो बिना राजनीति के दलदल में उतरे ही सत्ता या व्यवस्था में थोडा सा लाया गाया परिवर्तन सही मायनो में भारत के एक एक नागरिक में एक नया विश्वास तो जरुर भर देता की शांति के साथ भी राष्ट्र में क्रांति लायी जा सकती है .
भले ही इस रस्ते पर आंशिक सफलता मिलती , मगर यह आंशिक सफलता ही न जाने कितने लोगो को भावी अन्ना बनने के लिए प्रेरित करती . लोकपाल कानून से भी शायद ऐ बड़ी कामयाबी होती अगर अन्ना जी लोगो में ऐ संदेश दे पाते की आज भी घमंडी और सत्ता के नशे में चूर सरकार को गांधीवादी रस्ते से बदला जा सकता है .
अब ऐसा भला क्या हुआ की इतने बड़े गांधीवादी का विश्वास भी अपने ही सिन्धान्तो से ही डोल गया ?
क्या कांग्रेस की ऐ सरकार इतनी कुटिल या चतुर रणनीतिकार है जिसने अपने छद्म या अपने कौसल से अन्ना को परास्त कर दिया ?
क्या अन्ना अपने ही साथियो के सामने विवश हो गये ? कोई उन्हें बहका लेने में सफल रहा ?
या फिर अन्ना जी का खुद अपने आप से या अपने विचारों से ही विश्वास उठ गया ?
मैं वजह की जद में नहीं जाना चाहता . ना हीं बात को उस और मोड कर अपने मूल बात से भटकना चाहता हूँ .
मैं बात उस निती तक ही रखना चाहता हूँ जिस निती, जिस सिंद्धांत को हमें खुद अन्ना जी ने ही दिखलाया था . उपवाश और शांतिपूर्वक अनशन का तरीका . आम जन मानस को समाज और सरकार के प्रति सचेत करने का .
अब भला अगर आज की कांग्रेस सरकार के नेताओ ने अगर अन्ना जी का विश्वास हिला दिया तो अब केवल सोचा ही जा सकता है की आज़ादी के पूर्व कुटिल और चतुर अंग्रेजो के आगे अगर गाँधी सरीखे लोग नहीं हारे तो वो लोग भला किस हाड़ मांस के बने थे . कितना अटूट निश्चय रहा होगा उन जैसे लोगो का .
ऐसी घटनाये हमें इस बात का महत्व भली भाति बतला देती है आज गाँधी जैसे लोग कितने प्रासंगिक लगते है .
खैर वजह चाहे जो भी रही हो , और इस घोषणा का अंजाम चाहे जो भी हो वक्त आने पर पता चलेगा . मगर इतना तो जरुर है की अन्ना जी के इस कदम से आम जनमानस , हमारे देश का बहुत बड़ा नुकसान हुआ है .
बात अन्ना जी को खुद गौर करने की भी है जो इंसान त्याग और सादगी से जिंदगी भर संघर्ष करता रहे मगर उम्र के इस पड़ाव पर तो राजनीति जैसा गन्दा दाग उसके दामन पर भी लग ही गया .
यहाँ सबका नुकसान ही नुकसान है मगर अन्ना जी के इस कदम से कुछ लोगो को फायदा भी हुआ है ऐ वो लोग है जो राजनीति करते है .

हनुमत बी. सिंह
०४.०८.१२

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