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बारिश की बुँदे

From My Diary
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अर्ध निशा का मध्य प्रहर
सारी धरती बूंदों से तर
ऐसे में गुमशुम सी
मै बैठी अपनी
खिडकी पर,
तकती हू
टिपती टिपती
रिसती रिसती
बारिश की बुँदे
धरती पर ,
थम सा गया है
बूंदों का गिरना
कुछ शांत हुआ
अब शोर पवन का
देख रही हूँ
सुनी सुनी
पगडण्डी को
जो डूब चुकी है
बूंदों से
कब छाएगा ?
कब बरसेगा ?
सावन मेरा
जलते तन पर
तपते मन पर
जैसे बरसी
बारिस की बुँदे
धरती पर.

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